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ेएडवेन्चरस-द बैकबेन्चर्स
मुझे क्लास में पढ़ाते समय कुछ न कुछ अजीब अनुभव अवष्य होते हैं। जैसे मैं क्लास में पहुँचते ही पढ़ाना शुरु करने के पहले एक बार भरपूर नज़र अपने छात्रों की तरफ ध्यान से देखती हूँ। मुझे हैरानी होती है जब कई कक्षाओं में बच्चों की संख्या से अधिक फर्नीचर होता है,तब उस स्थिति में कुछ बच्चे हमेषा ही आगे की कुछ सीट्स खाली छोड़ देते हैं और एकदम पीछे बैठना पसंद करते हैं,( मीटिंग और सेमिनार्स में भी कुछ वयस्क लोग अक्सर ऐसा करते हैं,पर पीछे बैठने के सबके कारण अलग होते हैं,इन पर अलग से चर्चा कभी और……………)।
आज यूँ ही एक क्लास में मैंने जब इसका कारण जानना चाहा तो बड़े मज़ेदार , बड़े दिलचस्प जवाब प्राप्त हुए। दिमाग में एक ख़याल कौंधा कि क्यों न इन बैक-बेन्चर्स के मनोविज्ञान को समझा जाए।आखिर क्या-क्या कारण हो सकते हैं,जिनके कारण कुछ विभूतियाँ सदा पीछे विराजना चाहती हैं।
सबसे पहली बात तो ये कि ऐसा अमूमन सीनियर स्टूडेन्ट्स की क्लासेज़ में ही होता है।छोटे बच्चे तो ज़्यादातर आगे बैठने के लिए बहुत लालायित और उत्सुक होते हैं, वो तो सदा पहली बेन्च के लिए संघर्ष करते देखे जा सकते हैं। तो क्या बड़े बच्चों को लाइम-लाइट में आने का शौक नहीं होता ? क्या वो ज़िन्दगी में फ्लाइंग-कलर्स में नहीं उड़ना चाहते ?( ज़ाहिर है,कि अग्रिम पंक्ति वाले लोग तो इन्ही ख़्वाहिषों के लिए पहचाने जाते हैं।) दरअसल माजरा कुछ और ही है,चलिए ग़ौर फरमाते हैं आखिर किन कारणों से ‘बैकबेन्चर्स’का ये अपमानजनक टैगे भी कुछ विद्यार्थी खुषी-खुषी पहन लेते हैं।
पहला कारण( जिसकी जानकारी मुझे बच्चों से ही प्राप्त हुई ) ज़रा भी अप्रत्याषित न था। कुछ बैकबेन्चर्स का ये मानना है कि पीछे बैठकर टीचर के लेक्चर के दौरान बात करना, मस्ती करना, चोरी छिपे टिफिन खाना, इषारेबाजी करना, एक दूसरे से संदेषों का आदान-प्रदान, टीचर्स के कार्टून बनाना, उन्ही के लिए टाइटल या कमेन्ट्स तैयार करना कुल मिलाकर किसी भी प्रकार की शरारत, शैतानी या चीटिंग जो भी कह लें; यहाँ पर सब संभव है, सब आसान है।(ऐसा उन्हें लगता है।) इसलिए जब तक सामने बुलाया न जाए वे अपना सुरक्षित, आरामदायक स्थान छोड़ना नहीं चाहते।
इसके अलावा कुछ छात्र अध्यापक की ख़ौफनाक उपस्थिति और मुखाकृति( जो हमेषा नहीं होती) से अनावष्यक रूप से भयभीत भी होते हैं, उन्हें पता नहीं क्यों ऐसा लगता है कि आगे बैठना यानि पकड़े जाना या फँसना मतलब टीचर पढ़ाने के बजाए प्रष्न ज़्यादा पूछेगी और उन्ही से पूछेगी बऽऽऽऽऽस्सऽऽ! हो गया इज़्ज़त का फालूदा ! अब पूरी क्लास के सामने या तो लियाकत की पोल खुल जाएगी या बेइज़्ज़ती और लानत-मलानत से गुजरना होगा। सहषिक्षा वाले स्कूलों में इज़्ज़त, मान-सम्मान और अपमान के प्रति विद्यार्थी कतिपय कारणों से विषेष चौकन्ने रहते हैं लिहाज़ा वे अग्रिम पंक्तियों में बैठने से डरते हैं।
अब आखिरी और तीसरा कारण कुछ ऐसा है,जो हर व्यक्ति समझता भी है और उसे स्वीकार भी करता है और वो ये कि प्रायः प्रत्येक क्लास में कुछ बच्चे आदतन आलसी,हीन भावना से ग्रस्त और आत्मविष्वास की कमी के चलते किसी भी प्रकार की महत्वाकांक्षा से स्वतः दूरी बनाए होते हैं। इन पर सामान्यतः कोई प्रोत्साहन,कोई सीख,या कोई या कोई आदेष बहुत ज़्यादा असरकारक नहीं होता क्योंकि वे वास्तव में उसी स्थान पर होते हैं जो उन्होंने खुद के लिए आरक्षित समझ रखा होता है(दुर्भाग्यवष)।
इस पूरे विष्लेषण में कुछ मजे़दार तथ्य भी हैं जिन्हें एक उदाहरण की सहायता से समझा जा सकता है।सुना है कि पक्षी शुतुरमुर्ग जब अपने पास बिल्ली या किसी और संभावित ख़तरे की उपस्थ्ति भाँप लेता है तो भय से आँखें मूँद रेत में अपनी गर्दन छिपा लेता है और सोचता है कि अब ख़तरा मुझे दिखता नहीं इसलिए वो है नहीं लेकिन रेत के बाहर निकला शरीर उसका षिकार पूरी तरह देख पा रहा है ये वो शुतुरमूर्ख नहीं समझ पाता। ठीक उसी तरह पीछे बैठे विद्यार्थी(वे चाहे जिस भी कारण से वहाँ आसीन हों) , सदा टीचर की निगाह की परिधि में ही होते हैं इस बात को जानकर भी स्वयं को धोखा देते रहते हैं(बेचारे भोले बच्चे !) कारण भी बड़ा स्पष्ट है- टीचर की स्मार्ट ‘ बिलाव-दृष्टि ’ पीछे बैठे स्टूडेन्ट्स पर सीध्े और तुरन्त पहुँचती है और फिर वे मासूम ‘ चतुर, सयाने बनने के बजाए मूर्ख बन जाते हैं और अंततः विवष आत्मा से स्वीकार कर लेते हैं कि गुरु गुरु रहेगा और चेला-चेला।
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